चीरहरण

दुःशासन आज भी मिलता है हर शहरों में, गाँव में
है लुटती द्रौपदी अब भी मगर अब  तुम नही आते

थी पांचाली भरे दरबार में निर्वस्त्र होने को
था सूरज सभ्यता का अंततः जब अस्त होने को
तभी एक चीख निकली थी सुना था तुमने ही जिसको
अभी भी चीखते हैं हम, मगर अब  तुम नही आते
है लुटती द्रौपदी  ..............................................

अभी भी याद है कैसे मुझे तोड़ा-मरोड़ा था
डुबाकर दर्द के सागर में उसने मुझको छोड़ा था
दरिंदा था वो उसको दर्द का एहसास क्या होता
तुझे तो सब पता होगा, मगर अब  तुम नही आते
है लुटती द्रौपदी ...........................................

हमें तो लोग पीड़ा के भंवर में छोड़ देते हैं
न हो जीने के लायक भी ये कह मुँह मोड़ लेते हैं
मैं फितरत आदमी की जानती हूँ यही होती है
तुझे भी तो पुकारा था मगर अब तुम नही आते
है लुटती द्रौपदी ............................................

ये कैसा दाग है, लगता नहीं पापी के दामन पर
है लगता क्यूँ ग्रहण उस पर नहीं,मेरे ही जीवन पर
तेरी लीला भी तो कुछ कम नहीं, उलझी हुई सी है
दुःशासन भेज देते हो मगर अब तुम नही आते
है लुटती द्रौपदी अब भी ............................................

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